” हरेला आशीर्वाद “
“लाग हरेला, लाग बग्वाली
जी रया, जागि रया
अगास बराबर उच्च, धरती बराबर चौड है जया
स्यावक जैसी बुद्धि, स्योंक जस प्राण है जौ,
हिमाल म ह्युं छन तक, गंगज्यू म पाणि छन तक
यो दिन, यो मास भेटने रया”
घर के सबसे बड़े बुजुर्ग या घर के अविभावक के उपरोक्त आशीर्वाद, पिछले नौ दस दिन पूर्व घर के देवस्थल पर बांस या रिंगाल की टोकरी में बोए गए पांच – सात तरह के अनाजों का तैयार हरेला पूरी तरह कल यानी सज्ञान अर्थात सावन माह की पहली तिथि को कटने के लिए पहाड़ी पकवानों के साथ तैयार है।
कुमाऊं में तो यह परम्परा भी रही है कि हरेला त्यौहार के दिन एक पेड़ जरुर रोपा जाता है। मान्यता है कि हरेले के दिन जो पेड़, फूल, फल की कटिंग की टहनी आज के दिन रोपी/लगाई जाती है वह पेड़, कटिंग कभी नहीं सूखती है। पहाड़ में लोग कई जगहों पर अपने खेत की मेड़ों पर आज के दिन पेड़ रोपते आज भी देखने को मिल जायेंगे।
पहाड़ियों के घर में आज हरेला तैयार हो चुका होगा. हरेला यानी पांच या सात प्रकार के अनाजों की हरी-पीली लम्बी पत्तियां। कल हरेले की पूजा होगी और हरेला काटा भी जायेगा। काटने के बाद पहाड़ी इसे अपने कान के पीछे और सिर पर पूरी सान से रखेंगे। इसके अलावा गाय के गोबर संग हरेला अपने घर की चौखट पर भी लगाने की भी परम्परा है।
हरेला पर्व सावन के पहले दिन मनाया जाता है इस दिन से सूर्य मकर से कर्क रेखा की ओर अग्रसर होता है इसलिये इसे कर्क संक्रांति भी कहा जाता है। त्यौहार पर विभिन्न प्रकार के पहाड़ी पकवान परिवार के लोगों को लुभाते हैं। जिसमें खीर,उड़द की दाल के बड़े, पहाड़ी सब्जियां जिनमें तोरी,चचिंडा, लौकी,कद्दू, पहाड़ी ककड़ी का राई के स्वाद से बना रायता, पूरी प्रमुख हैं।
घर की सबसे बुजुर्ग महिला परिवार के सभी सदस्यों के कान के पीछे और सिर पर हरेला रख आशीष देती है. पृथ्वी के समान धैर्यवान और आकाश के समान उदार रहने के साथ हिमालय में हिम और गंगा में पानी रहने तक इस दिन को देखने और मिलने की कामना की जाती है।
पूर्व में बरसात के इन दिनों अपने मूल घर से बाहर नौकरी, व्यापार करने वाले लोग/परिवार,फौजी और प्रवासी पहाड़ीयों को इस त्यौहार से सम्बंधित भारतीय डाक से आने वाले अन्तर्देशी, लिफाफे का बेसब्री से इंतजार रहता। क्योंकि पहाड़ियों की पहाड़ से आने वाली चिठ्ठी बाहर से ही पहचानी जा सकती थी क्योंकि उसमें मोहर के साथ लगा होता पीला पिठ्या और भीतर से निकली होती हरेले की पत्तियां। जिसे प्राप्त कर प्रवासी पहाड़ी अपने को धन्य मानता था।
उत्तराखंड सरकार के पहल से यह त्यौहार अब धीरे-धीरे राष्ट्रीय स्वरूप लेने लगा है। शायद इसी त्यौहार की प्रेरणा से उत्तराखंड के ‘चिपको आन्दोलन’,’बीज बचाओ अभियान’,का जन्म हुवा हो। इस त्यौहार के माध्यम से कह सकते हैं प्रत्येक उत्तराखंडी और उसकी संस्कृति प्रकृति को संरक्षित करने के लिए पूरी तरह समर्पित है।
सभी प्रदेशवासियों, देशवासियों को प्रकृति पर्व हरेला की ढेरों शुभकामनाएं और बधाइयां। ईश्वर सभी के जीवन में हरी-भरी प्रकृति की तरह